________________ नैनधर्मामृत मनोवाक्कायवक्रत्वं विसंवादनशीलता। मिथ्यात्वं कूटसाक्षित्वं पिशुनास्थिरचित्तता // 36 // विपक्रियेष्टकापाकदावाग्नीनां प्रवर्तनम् / प्रतिमायतनोद्यानप्रतिश्रयविनाशनम् / / 37 // चैत्यस्य च तथा गन्धमाल्यधूपादिमोपणम् / अतितीव्रकपायत्वं पापकर्मोपजीवनम् // 38 // पल्पासह्यबादित्वं सौभाग्याकरणं तथा / अशुभस्येति निर्दिष्टा नाम्न आंत्रवहेतवः // 36 // मन, वचन और कायका कुटिल रखना, कलह करना, विसंवादी स्वभाव रखना, मिथ्यादर्शन धारण करना, नकली या झूठी गवाही देना, चुगली करना, अस्थिरचित्त होना, विष बनाना, ईंटोंका पकाना, जंगलोंमें अग्नि लगवाना, प्रतिमा, चैत्यालय, उद्यान, वसतिका आदिका विनाश करना, देव-मन्दिरकी गन्ध, माला, धूप, केशर आदिका चुराना, अति तीत्र कषाय रखना, पाप-युक्त कमासे आजीविका करना, कठोर और असह्य वचन बोलना, दूसरेके सौभाग्यका. विलोप करना इत्यादि कार्य अशुभ नामकर्मके आस्रवके कारण हैं अर्थात् उक्त कार्योंके करनेसे मनुप्य लँगड़ा, लूला, अन्धा, अल्पायु, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, दुर्भागी, दुःस्वर, कुटिल गतिवाला, हीन संहनन व बुरे संस्थानवाला होता है // 36-36 // अब सुन्दर शरीर, सौभाग्य, कीर्ति आदिके उत्पन्न करनेवाले शुभ नामकर्मके आस्रवके कारण कहते हैं संसारभीत्ता नित्यमविसंवादनं तथा / योगानां चार्जवं नाम्नः शुभस्यास्त्रबहेतवः // 40 // संसारसे सदा भयभीत रहना, कभी किसीसे कलह विसंवाद