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________________ नवम अध्याय 213 परिणामोंमें सरलता रखना, अल्प परिग्रहके साथ अल्प आरम्भ रखना, स्वभाव कोमल रखना, गुरुजनोंका पूजन करना, अल्प संक्लेश रखना, दान देना, प्राणिघातसे विरक्ति होना इत्यादि कार्य मनुष्यायुके आस्रवके कारण होते हैं // 32-33 // अब देवोंमें उत्पन्न करनेवाले देवायु कर्मके आस्रवके कारण कहते हैं अकामनिर्जरा बालतपो मन्दकषायता। सुधर्मश्रवणं दानं तथायतनसेवनम् // 34 // सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः / इति देवायुपो ह्येते भवन्त्यास्रबहेतवः // 35 // अकामनिर्जरा करना, वालतप धारण करना, मन्द कषाय रखना, सच्चे धर्मका सुनना, दान देना, धर्मके स्थानोंकी सेवा करना, सराग संयम धारण करना, सम्यग्दर्शन और देशसंयम पालन करना इत्यादि कार्य देवायुके आस्रवके कारण होते हैं // 34-35 // भावार्थ-विना इच्छाके परवश हो भूख, प्यास आदिकी बाधा सहन करनेसे जो कर्म-निर्जरा होती है, उसे अकाम-निर्जरा कहते हैं। अज्ञान-पूर्वक तपश्चरणको बाल-तप कहते हैं। कषाय सहित साधुओंके संयमको सराग-संयम कहते हैं। श्रावकके व्रतोंको . देश-संयम कहते हैं / इन सबके धारण करनेसे जीव मरकर देव। गतिमें उत्पन्न होता है। अब हीनांग, रोगी, शोकी, अभागी आदि अवस्थाओंके उत्पन्न करनेवाले अशुभनामकर्मके आस्रवके कारण कहते हैं
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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