________________ 212 जैनधर्मामृत सुवर्णमौक्तिकादीनां प्रतिरूपकनिर्मितिः / वर्ण-गन्ध-रसादीनामन्यथापादनं तथा // 26 // तक्र-क्षीर-घृतादीनामन्यद्रव्यविमिश्रणम् / वाचान्यदुत्काकरणमन्यस्य क्रियया तथा / / 30 // कापोत-नील-लेश्यात्वमार्तध्यानं च दारुणम् / वैर्यग्योनायुपो ज्ञेया माया चालवहेतवः // 31 // शील पालन नहीं करना, व्रत धारण नहीं करना, मिथ्यात्व सेवन करना, परको ठगना, मिथ्यात्व-युक्त अधर्मीका उपदेश देना, नकली अगरु, कपूर, कुंकुम-केशर वगैरह बनाना, हीनाधिक नापतौल करना, सुवर्ण, मोती, चाँदी आदिका प्रतिरूपक व्यवहार करना, धातुओंके वर्ण, गन्ध, रस आदिका अन्यथा वर्णादिक करना अर्थात् भस्मादि तैयार करना, छांछ, दूध, घी आदिमें अन्य द्रव्य मिलाकर बेंचना, वचनके द्वारा अन्यका परिहास करना, तथा कायकी क्रियाके द्वारा अन्यकी हँसी उड़ाना, कापोत और नीललेश्या रूप परिणाम रखना, इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग, वेदना और निदान ये चार प्रकारका दारुण आर्तध्यान रखना, मायाचार / करना इत्यादि कर्म तिथंच आयुके आस्रवके कारण जानना चाहिए // 27-31 // अब मनुष्योंमें उत्पन्न करनेवाले मनुप्यायु कर्मके आस्रवके कारण कहते हैं ऋजुत्वमीपदारम्भः परिग्रहतया सह / स्वभावमार्दवं चैव गुरुपूजनशीलता // 32 // अल्पसंक्लेशता दानं विरतिः प्राणिघाततः / आयुपो मानुपस्येति भवन्त्य हेतवः // 33 //