________________ जैनधर्मामृत अब आस्रवका उपसंहार करते हैं व्रताकिलास्रवेत्पुण्यं पापं तु पुनरवतात् / संक्षिप्यास्रवमित्येवं चिन्त्यतेऽतो व्रताव्रतम् // 51 // व्रत धारण करनेसे पुण्यकर्मका आस्रव होता है और अव्रतसेवनसे पापकर्मका आस्रव होता है। संक्षेपमें आस्रवतत्त्वका वर्णन इतना ही है। अतः आगे व्रत और अव्रतका विचार करते हैं॥५१॥ व्रतका स्वरूप हिंसाया अनृताच्चैव स्तेयादब्रह्मतस्तथा। परिग्रहाच्च विरतिः कथयन्ति व्रतं जिनाः // 52 // हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहसे विरत होनेको जिन भगवान्ने व्रत कहा है // 52 // अव्रतका स्वरूप पञ्चपापप्रवृत्तिश्च पन्चेन्द्रियार्थसेवनम् / अनिग्रहः कपायाणां जिनैरव्रतमुच्यते // 53 / / . हिंसादि पाँच पापोंमें प्रवृत्ति करना, पाँचों इन्द्रियोंके विषयों का सेवन करना और क्रोधादि कषायोंका नहीं जीतना, इसे जिन भगवान्ने अव्रत कहा है // 53 // __ व्रतोंका विशेष वर्णन चौथे और पाँचवें अध्यायमें किया जा चुका है, इसलिए यहाँ नहीं करके आस्रवतत्त्वका वर्णन समाप्त करते हैं / अन्तमें इतना कहना आवश्यक है और यही आस्रवतत्त्वके वर्णनका फल है कि बुद्धिमान् पुरुष उक्त कथनको भली भांति जानकर बुरे कामोंसे विरक्त हो कर शुभकार्यमें प्रवृत्त हों।