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________________ जैनधर्मामृत केवली भगवान् , श्रुतज्ञान, मुनि-आर्यिका श्रावक श्राविकारूप संघका और देवताका अवर्णवाद करना अर्थात् उनमें जो दोप नहीं है उन्हें प्रकट करना, तीर्थंकरोंका भी अवर्णवाद करना, सन्मार्गमें दूषण लगाना, कुमार्गका उपदेश देना इत्यादि कार्य दर्शनमोहनीय कर्मके आस्रवके कारण होते हैं // 19-20 // भावार्थ-उक्त कार्योंसे ऐसा कर्म बंधता है, जिसके कारण जीवको अनन्त काल तक संसारमें परिभ्रमण करना पड़ता है। अब सदा काल चित्तमें अशान्ति रखनेवाले प्रबल चारित्रमोहनीय कर्मके आलवके कारण कहते हैं स्यातीव्रपरिणामो यः कपाचाणां विपाकतः। : चारित्रमोहनीयस्य स एवात्रबहेतवः // 21 // क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कपायोंके तथा हास्य, रति, अरति आदि नौ नोकपायोंके उदयसे जो क्रोध, मान आदि रूप तीन परिणाम होते हैं, वे सब चारित्रमोहनीयकर्मके आलवके कारण हैं // 21 // भावार्थ-क्रोध, मान आदि करनेसे ऐसे कर्मका आस्रव होता है, जिससे कि यह जीव व्रत, शोल-संयम आदिके धारण करनेमें असमर्थ रहता है। - आयुकर्मके चार भेद हैं, उनमेंसे पहले नारकायुकर्मके आस्रवके कारण कहते हैं उत्कृष्टमानता शैलराजीसदृशरोपता। मायात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकम्पता // 22 // : भजलं जीवघातित्वं सततानृतवादिता। ', परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुनसेवनम् // 23 // . ..
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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