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________________ नवम अध्याय 206 निन्दा करना, दूसरोंको शील और व्रतसे डिगाना-गिराना इत्यादि कार्य असातावेदनीय कर्मके आस्रवके कारण हैं, . अर्थात् उक्त कार्योंके करनेसे इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग आदि असाताके उत्पन्न करनेवाले कर्मका बन्ध होता है // 12-16 // - अब इष्ट-संयोग एवं अन्य सुख साधनोंके मिलानेवाले पुण्यरूप सातावेदनीय कर्मके आस्रवके कारण कहते हैं दया दानं तपः शीलं सत्यं शौचं दमः तमा। वैयावृत्त्यं विनीतिश्च जिनपूजार्जवं तथा // 17 // सरागसंयमश्चैव संयमासंयमस्तथा। भूतव्रत्यनुकम्पा च सद्वेद्यानवहेतवः // 18 // प्राणियों पर दया करना, उन्हें दान देना, तप, शीलका पालन करना, सत्य बोलना, शौच रखना, इन्द्रियोंका दमन करना, क्षमा धारण करना, रोगी शोकीकी वैयावृत्त करना, विनय रखना, जिनपूजा करना, सरल भाव रखना, सरागसंयम (मुनिव्रत) और संयमासंयम (श्रावकधर्म ) का पालन करना, प्राणिमात्र पर तथा व्रती पुरुषों पर अनुकम्पा करना इत्यादि कार्य सातावेदनीय कर्मके आस्रवके कारण हैं // 17-18 // . अब संसारमें रुलानेवाले और अविवेक उत्पन्न करनेवाले दर्शन मोहनीय कर्मके आस्रवके कारण कहते हैं केवलिश्रुत-सङ्घानां धर्मस्य त्रिदिवौकसाम् / अवर्णवादग्रहणं तथा तीर्थकृतामपि // 16 // मार्गसंदूपणं चैव तथैवोन्मार्गदेशनम् / इति दर्शनमोहस्य भवन्त्यावहेतवः // 20 //
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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