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________________ 208 जैनधर्मामृत ... अब चिन्ता, शोक आदि उत्पन्न करनेवाले और अनिष्ट-संयोग व इष्ट-वियोग करनेवाले असाता वेदनीयकर्मके . आस्रवके कारण कहते हैं दुःखं शोको वधस्तापः क्रन्दनं परिदेवनम् / पंरात्मद्वितयस्थानि तथा च परपैशुनम् // 12 // छेदनं भेदनं चैव ताडनं दमनं तथा / तर्जनं भर्त्सनं चैव सद्योऽविश्वसनं तथा // 13 // पापकर्मोपर्जीवित्वं वक्रीलत्वमेव च / / शास्रमदान:विश्रम्भघातनं विपमिश्रणम् // 14 // शृङ्खला-वागुरा-पाश-रज्जु-जालादिसर्जनम् / . : : धर्मविध्वंसनं धर्मप्रत्यूहकरणं तथा // 15 // ... . तपस्विगर्हणं शीलवतप्रच्यावनं तथा / . . .. इत्यसद्वेदनीयस्य भवन्त्यानवहेतवः // 16 // . .. दुःख करना, शोक करना; किसीका वध करना, सन्ताप करना, चिल्लाना और हाय-हाय करना, इतने काम चाहे स्वयं करे, चाहे ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देवे कि जिससे दूसरा- उक्त काम करे, और चाहे स्वयं भी करे और दूसरोंको भी दुःख, शोकादि उत्पन्न करावे; तथा परायी चुगली करना, परके अंग-उपांगोंका छेदना; भेदना, परको ताड़न करना, दमन करना, तर्जन करना, तिरस्कार करना; जल्दी विश्वास नहीं करना, पाप युक्त कार्योंसे आजीविका करना, कुटिल स्वभाव रखना, हिंसाके साधनभूत शस्त्र आदि दूसरोंको देना, विश्वासघात करना, विषोंका सम्मिश्रण करना, सांकल, लगाम, पाश, रस्सी और जाल आदिका. बनाना, धर्मका विध्वंस करना, धर्म-कार्योंमें विघ्न उपस्थित करना, तपस्वियोंकी
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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