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________________ नवम अध्याय 207 आचार्य और उपाध्यायसे प्रतिकूल आचरण करना, श्रद्धा नहीं रखना, विद्याभ्यास नहीं करना, पाठशाला, स्वाध्यायशाला और सरस्वती-भवन आदिके काममें रुकावट डालना, अपने बहुज्ञानी होनेका अभिमान करना और दूसरे बहुश्रुतज्ञानीका अपमान करना, ज्ञानके अध्ययनमें शठता रखना इत्यादि कार्य ज्ञानावरणीय कर्मके आस्रवके कारण हैं अर्थात् इन कार्योंके करनेसे आत्माका अनन्त पदाथाको जाननेवाला ज्ञान प्रकट नहीं होने पाता // 5-8 // दर्शनावरणीय कर्मके आस्रवके कारण दर्शनस्यान्तरायश्च प्रदोपो निहवोऽपि वा / मात्सर्यमुपधातश्च तस्यैवासादनं तथा // 6 // नयनोत्पाटनं दीर्घस्वापिता शयनं दिवा / / नास्तिक्यवासना सम्यग्दृष्टिसंदूपणं तथा // 10 // कुतीर्थानां प्रशंसा च जुगुप्सा च तपस्विनाम् / दर्शनावरणस्यैते भवन्त्यानवहेतवः // 11 // . किसीके देखनेमें अन्तराय करना, दोष लगाना, निह्नव करना, ईर्ष्या करना, उपघात करना, किसीकी देखी गई ठीक भी वस्तुमें दूपण प्रकट करना, किसीके नेत्र उखाड़ देना, बड़ी लम्बी नींद लेना, दिनको सोना, नास्तिकताकी भावना रखना, सम्यग्दृष्टि पुरुष को दोष लगाना, कुतीर्थों की प्रशंसा करना, तपस्वियोंको देखकर उनसे ग्लानि करना, इत्यादि दर्शनावरणीय कर्मके आस्रवके कारण हैं, अर्थात् उपर्युक्त काम करनेसे ऐसा कर्मबन्ध होता है जिससे कि आत्माका वा त्रैलोक्यका साक्षात्कार करनेवाला दर्शनगुण प्रकट नहीं होने पाता // 9-11 // : ' . ..
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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