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________________ 206 जैनधर्मामृत सूत्रकी टीका सर्वार्थसिद्धि आदिसे जानना चाहिए / यहाँ विस्तारके भयसे उनका वर्णन नहीं किया है। कोंके आठ मूल भेद बतला आये हैं। ये ही जीवके स्वरूप को घातकर उसका असली स्वभाव प्रकट नहीं होने देते हैं। पहले सिद्धोंके जो आठ गुण बतला आये हैं, उन्हें ही ये आठ कर्म घातते हैं / अब आगे यह बतलाते हैं कि कैसे काम करनेसे किस कर्मका आस्रव होता है। ज्ञानावरणीय कर्मके आस्त्रवके कारण मात्सर्यमन्तरायश्च प्रदोपो निह्नवस्तथा / आसादनोपघातौ च ज्ञानस्योत्सूत्रचोदितौ // 5 // अनादरार्थश्रवणमालस्यं शास्त्रविक्रयः / बहुश्रुताभिमानेन तथा मिथ्योपदेशनम् / / 6 / / अकालाधीतिराचार्योपाध्यायप्रत्यनीकता / श्रद्धाभावोऽप्यनभ्यासस्तथा तीर्थोपरोधनम् // 7 // बहुश्रुतावमानश्च ज्ञानाधीतेश्च शाख्यता / इत्येते ज्ञानरोधस्य भवन्त्यानवहेतवः 8 / / ज्ञानी पुरुषको देखकर ईप्या करना, ज्ञानके साधनों में विन्न उपस्थित करना, ज्ञानी जनोंमें दोष लगाना, उनका निव करना, आसादन करना, उनके प्रशस्त गुणों में भी दूपण प्रकट करना, ज्ञानका प्रतिकूल निरूपण करना, ज्ञानमें अनादर करना, ज्ञोनका अर्थ समझने-सुननेमें आलस्य करना, या अनादर पूर्वक शास्त्रोंका अर्थ सुनना, आलस्य करना, शास्त्रोंको वेचना, पाण्डित्यके अभिमानसे मिथ्या उपदेश देना, अकालमें अध्ययन करना,
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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