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________________ * नवम अध्याय : संक्षिप्त सार . इस अध्यायमें आस्रवतत्त्वका विस्तारसे विवेचन किया गया है। योगसे अर्थात् मन, वचन और कायकी हलन-चलनरूप क्रियाके द्वारा जो पौद्गलिक कर्म आत्माके भीतर आते हैं, उसे आस्रव, कहते हैं। यदि हमारे मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति शुभ होती है, तो पुण्यकर्मका आस्रव होता है और यदि अशुभ होती है, तो पाप कर्मका आस्रव होता है। भावोंकी तीव्रता, मन्दता आदिके द्वारा पुण्य या पापके आस्रवमें भी विशेषता होती है यतः मनवचन-कायकी क्रिया प्रतिक्षण होती रहती है, अतः प्रतिसमय कोंका समुदाय आत्माके भीतर आता रहता हैं। और आत्मामें प्रवेश करनेके साथ ही वह आठ कर्मों रूपसे परिणत हो जाता है। आठ कर्मोके नाम इस प्रकार हैं-ज्ञोनावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय / कैसे कार्य करनेसे किस कर्मका तीव्र आस्रव होता है, इस बातका विवेचन इस अध्यायमें किया गया है, यदि कोई ज्ञानी व्यक्ति इन आठों कर्मोंके आनेके कारणोंको जानकर उनसे आत्माको सुरक्षित रखनेका प्रयत्न करे, तो वह बहुत शीघ्र आस्रवका निरोधकर और संचित कर्म पुद्गलोंकी निर्जरा करके कर्म-लेपसे विनिर्मुक्त हो सकता है। आयुकर्मके आस्रवके कारण बतलाते हुए देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरकमें ले जानेवाले कारणोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है / नामकर्मके आस्रव बतलाते हुए त्रिलोक-पूज्य तीर्थंकर प्रकृतिके आस्रवकी कारणभूत षोडश कारण-भावनाओंका भी वर्णन किया गया है। अन्तमें व्रत और अव्रतका स्वरूप बतलाकर इस अध्यायको समाप्त किया गया है। ...
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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