________________ 200 जैनधर्मामृत पृथक्-पृथक् असंख्यात प्रदेश कहे गये हैं। पुद्गलोंके संख्यात; असंख्यात और अनन्त प्रदेश. होते हैं / आकाशके अनन्त प्रदेशः हैं / निश्चय और व्यवहाररूप.दोनों प्रकारके कालके एक प्रदेशमात्र होनेसे उसे अप्रदेशी कहा गया है.॥८-१०॥ . .. .. :: ‘लोक-अलोकका विभाग . . .. : ... लोकाकाशेऽवगाहः स्याद्व्याणां न पुनर्बहिः / . लोकालोकविभागः स्यादत एवाम्बरस्य हि // 11 // जीवादि छहों द्रव्योंका अवगाहन लोकाकाशमें है, उससे वाहर नहीं / आकाशके जितने भागमें छहों द्रव्योंका सद्भाव पाया जाता है, उसे लोक या लोकांकाश कहते हैं, और उससे बाहरके अनन्त आकाशको अलोंक या अलोंकाकाश कहते हैं। इस प्रकार एक ही आंकाशके द्रव्योंके सद्भाव या असद्भावके कारण दो भेद हो जाते हैं // 11 // लहों द्रव्यों के उपकार धर्मस्य गतिरत्र स्यादुधर्मस्य स्थितिभवेत् / उपकारोऽवगाहस्तु नभसः परिकीर्तितः // 12 // पुद्गलानां शरीरं वाक् प्राणापानौ तथा मेनः। : उपकारः सुखं दुख जीवितं मरणं तथा // 13 // परस्परस्य जीवानामुपकारो निगद्यते / उपकारस्तु कालस्य वर्तना परिकीर्तिता // : जीव और पुद्गलोंके गमनमें सहायक होना धर्मास्तिकायका उपकार है। जीव और पुद्गलोंकी स्थितिमें सहायक होना अधर्मास्तिकायका उपकार है। छहों द्रव्योंको अवकाश देना यह आकाश.