________________ जैनधर्मामृत अनेक प्रदेश जिनके पाये जाते हैं, उन्हें अस्तिकाय कहते हैं, ऐसे अस्तिकाय पाँच द्रव्य हैं / काल द्रव्य नहीं, क्योंकि उसके एक ही प्रदेश होता है। द्रव्यका लक्षण समुत्पाद-व्यय-ध्रौव्यलक्षणं क्षीणकरमपाः / गुणपर्ययवद्व्यं वदन्ति जिनपुङ्गवाः // 4 // वीतराग जिनभगवान्ने उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यसे युक्त, या गुण-पर्यायवाले पदार्थको द्रव्यका लक्षण कहा है ||4|| भावार्थ-पदार्थमें नई अवस्थाके उत्पन्न होनेको उत्पाद, पूर्व अवस्थाके विनाशको व्यय और पूर्वोत्तरकालज्यापी अखण्ड सन्तानको ध्रौव्य कहते हैं। उक्त छहों द्रव्योंमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पाया जाता है, इसलिए यही द्रव्यका लक्षण कहा गया है। अथवा गुण और पर्यायसे युक्त पदार्थको द्रव्य कहते हैं। जो धर्म जीवादि पदार्थोंमें सर्वदा पाया जाता है उसे गुण कहते हैं जैसे ज्ञानदर्शनादिक / और जो धर्म क्रमसे उत्पन्न होता है और बदलता रहता है उसे पर्याय कहते हैं, जैसे मनुष्यकी नरक, पशु, देवादि पर्याय / यदि दोनों द्रव्यलक्षणोंका समन्वय करके देखा जाय, तो ध्रौव्यधर्म गुणस्वरूप और उत्पाद-व्ययधर्म पर्यायरूप पड़ते हैं, इसलिए दाना लक्षणाम कोई भेद नहीं समझना चाहिए। द्रव्योंमें रूपी-अरूपीका भेद / शब्द-रूप-रस-स्पर्श-गन्धात्यन्तव्युदासतः / पञ्चद्रव्याण्यरूपाणि रूपिणः पुद्गलाः पुनः // 5if रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द इनके सद्भावसे पुद्गल