________________ * अष्टम अध्याय : संक्षिप्त सार . दूसरा अजीवतत्त्व है, उसके जैनदर्शनकारोंने पाँच भेद बतलाये हैं---पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल। इन्द्रियोंके द्वारा जितने भी जड़ पदार्थों को हम देखते, जानते हैं, वे सब पुदगलके ही विभिन्न रूप हैं। पुद्गलका लक्षण करते हुए जैनाचार्योंने बताया है कि मिलने और विछुड़नेकी शक्ति रखनेवाली रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दात्मक जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब पुद्गल परमाणुओंके पूरण. (संयोग) और गलन (वियोग) से उत्पन्न हुई हैं, यहाँ तक कि हमारा शरीर भी पौद्गलिक है और आत्माकी शक्तिको आच्छादित करनेवाले कर्म भी पौदगलिक ही हैं। इसलिए हेयतत्त्वकी दृष्टिसे पुद्गलोंकी विभिन्न अवस्थाओं का जानना भी अत्यावश्यक है। इसके अतिरिक्त सारे जगत्में एक ऐसा भी तत्त्व भरा हुआ है जो प्रत्येक गतिशील पदार्थके गमन करनेमें सहायक होता है, उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं / तथा एक ऐसा भी पदार्थ सर्वलोकमें भरा हुआ है, जो ठहरनेवाले पदार्थों के ठहरने में सहायक होता है, उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं / आकाश सर्वत्र व्यापक है और सर्वद्रव्योंको अवकाश देता है। कालद्रव्य सर्वपदार्थोंकी अवस्थाओंके परिवर्तनमें सहायक होता है। इन पाँचोंमेंसे एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्तिक है और शेष चार द्रव्य अमूर्तिक हैं। जिसमें रूप-रसादि पाये जायं उसे मूर्तिक कहते हैं, और रूप-रसादिसे रहित तथा इन्द्रियोंके अगोचर पदार्थोंको अमूर्तिक कहते हैं। इस प्रकार आठवें अध्यायमें अजीवतत्त्वके भेद-प्रभेदोंका वर्णन किया गया है।