________________ सप्तम अध्याय . जीवका स्वरूप चेतनालक्षणो जीवः कर्ता भोक्ता तनुप्रमः / . अनादिनिधनोऽमूतः स च सिद्धः प्रमाणतः // 4 // वह जीव ज्ञान-दर्शनरूप चेतना लक्षणवाला है, अपने सुखदुःखका कर्ता और भोक्ता है, देह-प्रमाण है, अनादिनिधन है, .. अमूर्त है तथा उस जीवका अस्तित्व प्रमाणोंसे सिद्ध है // 4 // जीवके भेद सामान्यादेकधा जीवो बन्दो मुक्तस्ततो द्विधा / स एवासिद्ध-नोसिद्ध-सिद्धत्वात्कीय॑ते त्रिधा / / 5 / / श्वातिर्यग्नरामर्त्य विकल्पात् स चतुर्विधः। . पञ्चभावविभिन्नत्वात् पञ्चभेदः प्ररूप्यते // 6 // . वह जीव एक जीवन-सामान्य गुणकी अपेक्षा एक भेदरूप है। तथा बद्ध मुक्त या संसारी-सिद्धकी अपेक्षा दो प्रकारका है। वही जीव संसारी, नोसिद्ध या जीवन्मुक्त और सिद्धकी अपेक्षा तीन प्रकारका कहा जाता है। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चार गतियोंकी अपेक्षा वह चार प्रकारका माना जाता है। तथा औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक इन पाँच भावोंकी अपेक्षा पाँच प्रकारका प्ररूपण किया जाता . विशेषार्थ-पूर्व अध्यायमें बताये हुए तेरहवें गुणस्थानवत्ती सयोगिकेवली और चौदहवें गणस्थानवर्ती अयोगिकेवलीको जीवन्मुक्त . या नोसिद्ध कहते हैं। कर्मोंके उपशमसे होनेवाले भावोंको औप- . ... शमिक, कर्मोंके क्षयंसे होनेवाले भावोंको क्षायिक, कर्मोंके क्षयोप