________________ 160 जैनधर्मामृत कारण हैं, इसलिए बन्धके पश्चात् इन दोनों तत्त्वोंको कहा है तथा हेय अजीव पदार्थ के प्रकृष्ट हानिका कारण और उपादेय जीव पदार्थके शुद्ध स्वरूपकी प्राप्तिका कारण होनेसे अन्तमें मोक्षको कहा है // 2-3 // __ भावार्थ-ज्ञान-दर्शनरूप चैतन्य भावके धारण करनेवाले द्रव्यको जीव कहते हैं / चेतना-रहित द्रव्यको अजीव कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं, पुदगल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल / इनका वर्णन अजीव द्रव्यके प्रकरणमें किया जायगा। अजीवके इन पाँच भेदोंके साथ जीव द्रव्यको मिला देने पर वे छह द्रव्य कहलाने लगते हैं। रागादि परिमाणरूप मन, वचन, कायके निमित्तसे जो पौलिक कर्म आत्मामें आते हैं, उसे आस्रव कहते हैं। जीव और पौगलिक कर्मोंका परस्परमें बँध जाना-एकमेक हो जाना, वन्ध है / नवीन आते हुए कर्मोंका रुक जाना संवर कहलाता है। संचित हुए कोंके देश-देशका झड़ जाना-आत्मासे दूर हो जाना निर्जरा है और आत्माका सर्वकर्मोंसे रहित हो जाना मोक्ष तत्त्व है। इनका विस्तृत विवेचन आगे किया जायगा / इनमें आत्मा प्रधान है और उसका अन्तिम ध्येय मोक्षप्राप्ति है, इसलिए इन दो तत्त्वोंका ग्रहण आवश्यक है। जीवका संसारमें परिभ्रमण अजीवके निमित्तसे होता है। और उस संसारके कारण आस्रव और वन्ध हैं, इसलिए क्रमशः इन तीन तत्त्वोंका कथन आवश्यक है और अन्तिम लक्ष्य मोक्षकी प्राप्तिके कारण संवर और निर्जरा है, इसलिए मोक्षके पूर्व उक्त दोनों तत्त्वोंका कथन भी आवश्यक है। इस प्रकार सात तत्त्वोंकी प्ररूपणा अत्यन्त सुसंगत है। ..