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________________ सप्तम अध्याय : संक्षिप्त सार जैनधर्मके शास्ताओंने जिन हेय उपादेय रूप सात तत्त्वोंका उपदेश दिया है, उनके नाम इस प्रकार हैं-१ जीवतत्त्व, 2 अजीवतत्त्व,३ आस्रवतत्त्व 4 बन्धतत्त्व, 5 संवरतत्त्व, 6 निर्जरातत्त्व और मोक्षतत्त्व / इनके विषयमें यह जान लेना आवश्यक है कि प्रयोजनभूत वस्तुको तत्त्व कहते हैं / प्रयोजनभूत तत्त्वोंको ज्ञेय हेय और उपादेयरूप तीन कोटियोंमें विभक्त किया जाता है। विना जाने किसी भी तत्त्वके भले-बुरेकी जांच नहीं हो सकती, अतः सातों तत्त्व सामान्यतः ज्ञेयरूप अर्थात् जाननेके योग्य हैं। किन्तु उनमें जीव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये चार तत्त्व उपादेय अर्थात् ग्रहण करनेके योग्य हैं और अजीव, आस्रव और बन्धतत्त्व हेय अर्थात् छोड़नेके योग्य हैं। इनमें से उपादेयरूप जो जीवतत्त्व है, उसका इस अध्यायमें विवेचन किया गया है। जीव सामान्यसे एक रूप है, संसारी और मुक्तकी अपेक्षा दो भेदरूप है, असिद्ध, नोसिद्ध और सिद्धकी विवक्षासे तीन भेदरूप है, देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारकीकी अपेक्षा चार भेद रूप है, पंच जातियोंकी अपेक्षा पाँच भेद रूप और छह कायोंकी अपेक्षा छह भेदरूप है। इस प्रकार इस अध्यायमें विभिन्न अपेक्षाओंसे जीवके भेद-प्रभेदोंका और उनकी विभिन्न जातियोंका विवेचन कर अन्तमें सिद्ध जीवोंका * वर्णन कर यह सूचित किया गया है कि वही रूप हमारे लिए उपादेय है।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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