________________ 186 जैनधर्मामृत चारित्र तथा अन्तरायकर्मके क्षयसे अनन्त दान, लाभ, भोग, उपभोग और अनन्तवीर्यकी प्राप्ति होती है। इससे वह सर्वज्ञ प्रभु विना आहारके भी जीवन-पर्यन्त जीते हुए अनन्त सुखका अनुभव करते हैं और समवसरणादि परम विभूतिके साथ विहार करते हुए भव्य जीवोंको धर्मका-मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं / इस गुणस्थानका जघन्य अन्तर्मुहूर्त मात्र है और उत्कृष्ट काल आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है / इतने लम्बे समय तक भी विना किसी बाह्य आहारादिके जो उनकी अक्षुण्ण सामर्थ्य बनी रहती है वह सब इन नौकेवललब्धियोंका ही प्रभाव है। 14 अयोगिकेवलो गुणस्थान प्रदह्याघातिकर्माणि शुक्लध्यानकृशानुना। अयोगो याति शीलेशो मोक्षलक्ष्मी निरानवः // 20 // जब तेरहवें गुणस्थानके कालमें एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समय अवशिष्ट रह जाता है, तब शुक्लध्यान रूपी अग्निके द्वारा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अधातिया कर्मीको भी भस्म करके अठारह हजार शीलोंके स्वामी बनकर तथा सर्व प्रकारके कर्मास्रवसे रहित होकर एक अन्तर्मुहर्त प्रमाण योग-रहित अवस्थाका अनुभव करते हैं उस समय वे अयोगिकेवली कहलाते हैं / इस गुणस्थानका काल समाप्त होने पर वे मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् मुक्त या सिद्ध वनकर सिद्धालयमें जा विराजते हैं // 20 // . सिद्धोका स्वरूप सम्प्राप्ताष्टगुणा नित्या कर्माष्टकनिराशिनः / लोकाग्रवासिनः सिद्धा भवन्ति निहितापदः // 21 //