SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . . पष्ठ अध्याय गुणस्थानमें चढ़ता है / ग्यारहवें काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। जब ग्यारहवें गुणस्थानका समय पूरा हो जाता है, तब वह नियमसे नीचे गिर जाता है, क्योंकि उसके फिर नियमसे मोहकर्मका उदय आ जाता है और इसी कारण वह ऊपर चढ़नेमें असमर्थ रहता है। नीचे गिरता हुआ वह छठे सातवें तक आ जाता है। वहाँ यदि वह पुनः प्रयत्न करे और क्षायिक सम्यग्दृष्टि बनकर क्षपक श्रेणीपर चढ़े, तो वह दशवें गुणस्थानसे एक दम बारहवेमें पहुँचकर क्षीण.. मोही वीतराग वन जायगा और एक अन्तर्मुहूर्त तक उस वीत रागताका अनुभव कर, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय . इन तीन अवशिष्ट धातियाकर्मोका क्षयकर तेरहवें गुणस्थानमें पहुँचता है और अरहंत सर्वज्ञ आदि संज्ञाओंको धारण करता है। 13 सयोगिकेवली गुणस्थान - घातिकर्मक्षये लब्ध्वा नवकेवललब्धयः / .. येनासौ विश्वतत्त्वज्ञः सयोगः केवली विभुः॥१६॥ दश गुणस्थानमें मोहनीय कर्मका और बारहवें गुणस्थानमें शेष तीन घातिया कर्मोंका नाश करने पर नवकेवललब्धियां प्राप्त होती हैं, जिनसे वह साधु विश्वतत्त्वज्ञ सयोगिकेवली प्रभु बन जाता है // 19 // - भावार्थ-नवकेवललब्धियाँ ये हैं अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तसुख; अनन्तवीर्य, क्षायिक दान, क्षायिकलाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक चारित्र / इनमें से ज्ञानावरणीय कर्मके क्षय हो जानेसे अनन्त ज्ञान, दर्शनावरणीय कर्मके क्षयसे अनन्त दर्शन, . मोहनीय कर्मके क्षयसे अनन्तसुख और क्षायिक
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy