________________ 184 जैनधर्मामृत स्वरूपमें मोहकर्मके उपशम करने या क्षय करनेका एक साथ वर्णन किया गया है। 11 उपशान्त मोह गुणस्थान अधोमले यथा नीते कतकेनाम्भोऽस्ति निर्मलम् / उपरिष्टात्तथा शान्तमोहो ध्यानेन मोहने // 17 // गंदले जलमें कतकफल या फिटकरी आदिके डालनेपर उसका . मलभाग जैसे नीचे बैठ जाता है और ऊपर निर्मल जल रह जाता है, उसी प्रकार उपशमश्रेणीरूपी परिणामों के द्वारा शुक्लध्यानसे मोहनीय कर्म उपशान्त कर दिया जाता है जिससे कि परिणामोंमें एक दम वीतरागता, निर्मलता और पवित्रता आ जाती है, उस समय उस साधुको शान्तमोह या उपशान्तकषायवीतरागद्मस्थ कहते हैं // 17 // 12 क्षीणमोह गुणस्थान तदेवाम्भो यथान्यत्र पाने न्यस्तं मलं विना / प्रसन्नं मोहने क्षोणे क्षीणमोहस्तथा यतिः // 18 // कतकफल आदिसे शुद्ध किया हुआ वही निर्मल जल यदि अन्य पात्रमें रख दिया जाय तो जैसी उसकी निर्मलता, प्रसन्नता या स्वच्छता दृष्टिगोचर होती है, इसी प्रकार क्षपकश्रेणी पर चढ़कर मोहकर्मके क्षय देनेपर साधुके परिणामोंमें परम निर्मलता और प्रसन्नता प्राप्त होती है, और इसीलिए इस गुणस्थानवाला जीव क्षीणमोहवीतराग संयत कहलाता है // 18 // विशेपार्थ-क्षपक श्रेणीवाला जीव दशवेंसे. एकदम बारहवें .. गुणस्थानमें चढ़ता है किन्तु उपशम श्रेणीवाला दशवेसे ग्यारहवें