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________________ 180 * जैनधर्मामृत तीन करणोंमेंसे प्रथम अधःप्रवृत्तकरणको प्रारम्भ करता है, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणाम तो आठवें और नवें गुणस्थानमें होते हैं। 8 अपूर्वकरणसंयत गुणस्थान अपूर्वः करणो येषां भिन्नं क्षणमुपेयुपाम् / भभिन्नं सदृशोऽन्यो वा तेऽपूर्वकरणाः स्मृताः // 11 // क्षपयन्ति न ते कर्म शमयन्ति न किञ्चन / / केवलं मोहनीयस्य शमन-क्षपणोद्यताः // 12 // विभिन्त क्षणवर्ती जिन जीवोंके परिणाम अपूर्व हों, और एक . समयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश भी हों और विसदृश भी हों, उन्हें अपूर्वकरण माना गया है। ये अपूर्वकरण परिणाम न तो किसी कर्मका क्षपण करते हैं और न उपशमन ही करते हैं; केवल मोहनीय कर्मके उपशमन और क्षपण करनेके लिए उद्यत होते हैं // 11-12 // . भावार्थ-यह गुणस्थान और इससे आगे वारहवें गुणस्थान . तकके सब गुणस्थान ध्यानावस्थामें ही होते हैं। इन गुणस्थानोंका. . काल अत्यन्त अल्प है, फिर भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। जब कोई सातिशय अप्रमत्तसंयत मोहनीय कर्मका उपशम या क्षपण करने के लिए उद्यत होकर अधःकरण परिणामोंको करके इस गुणस्थान में प्रवेश करता है, तब उसके परिणाम प्रत्येक क्षणमें अपूर्व अपूर्व ही होते हैं, प्रत्येक समय उसकी विशुद्धि अनन्तगुणी होती जाती है। इस गुणस्थानके परिणाम इसके पहले कभी नहीं प्राप्त हुए थे, अतः उन्हें अपूर्व कहते हैं। इस गुणस्थानमें कई जीव यदि ..
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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