________________ षष्ठ अध्याय 176 ., साधु संयम पालन करते हुए भी इन पन्द्रह भेदोंमेंसे किसी एकमें ... वर्तमान होता है, तब वह प्रमत्तसंयत है। . . 7 अप्रमत्तसंयत गुणस्थान ... .. . शमक्षयपराधीनः कर्मणामुद्यसंयमः। . निष्प्रमादोऽप्रमत्तोऽस्ति धम्यं ध्यानमधिष्ठितः // 10 // संज्वलन और नोकषायोंके, अथवा. चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशमवाला, संयम धारण करनेमें उद्यमशील, धर्मध्यानको धारणकर उसमें संलग्न और प्रमाद-रहित साधु अप्रमत्तसंयत . है // 10 // भावार्थ-ऊपर प्रमत्तसंयत गुणस्थानके स्वरूपमें जिस प्रकार के प्रमादका वर्णन किया गया है उससे जो साधु रहित है, धर्म, शुद्धि और चारित्रके धारण करनेमें उद्यमशील या सोत्साही है, आत्मोपयोगमें निरत है, विकथादि प्रमादसे पराङ्मुख है और ध्यानअवस्थाको प्राप्त कर निर्विकल्प समाधिमें लवलीन है, उसे अप्रमत्तसंयत कहते हैं। इस गुणस्थानका भी काल अन्तर्मुहर्त मात्र ही है। इससे यदि वह परमविशुद्धिको प्राप्त कर लेवे तो ऊपरके गुणस्थानोंमें चढ़ सकता है, अन्यथा पुनः छठे गुणस्थानमें आ जाता है और इस प्रकार वह इन दोनों गणस्थानोंमें निरन्तरअपनी आयुके अन्तिम क्षण तक परिवर्तन करता रहता है। ' इस गुणस्थानके दो भेद हैं-१ स्वस्थान-अप्रमत्त और 2 साति- ... शय अप्रमत्त / सातवेंसे छठेमें और छठेसे सातवें गुणस्थानमें परिवर्तन करना स्वस्थान-अप्रमत्तसंयतके होता है। किन्तु जो सातिशय अप्रमत्तसंयत है, वह मोहनीय कर्मके उपशम या क्षय करनेके लिए