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________________ 178 जैनधर्मामृत जाता है। यहाँ प्रमादका क्या अर्थ है यह आगेके श्लोकसे प्रकट करते हैं संज्वलननोकपायाणामुदये सत्यनुद्यमः / धर्मे शुद्धधष्टके वृत्ते प्रमादो गदितो यते // 6 // संज्वलन-क्रोध, मान, माया, लोभ और नव नोकपायोंके उदय . होनेपर जो दश प्रकारके धर्ममें, आठ प्रकारकी शुद्धियोंमें और तेरह प्रकारके चारित्रमें अनुद्यम या उत्साह होता है, वही साधुका प्रमाद कहा गया है // 6 // - भावार्थ-साधुके उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दश प्रकारका धर्म होता है / मनःशुद्धि, वाक् शुद्धि, कायशुद्धि, भैक्ष्यशुद्धि, ईर्ष्यापथशुद्धि, संस्तरशुद्धि, उत्सर्गशुद्धि और विनयशुद्धि ये आठ प्रकारकी . शुद्धियाँ होती हैं / पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ये तेरह प्रकारका चारित्र होता है। जब साधुके संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभका या हास्यादि नौ नोकषायोंका तीन उदयं रहता है, तब उक्त धर्म, शुद्धि या चारित्रको धारण करते हुए भी उनमें अनुत्साह रहता है, और इस कारण वह प्रमत्त कहलाता है। .. किन्तु त्रस और स्थावर जीवोंकी हिंसासे वह सर्वथा विरत रहता है इसलिए वह संयंत कहलाता है, इस प्रकार प्रमत्त होकरके भी जो संयत होता है, उसे प्रमत्तसंयंत कहते हैं. और यही इस छठे गुणस्थानका स्वरूप है। प्रमादके परभागममें अन्य प्रकारसे 15 भेद बताये हैं, चार कषाय, चार विकथाएँ (स्त्री, राज, भोजन और देशकथा ), पाँच इन्द्रियाँ, प्रणय (स्नेह ) और निद्रा। जब . .
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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