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________________ षष्ठ अध्याय 175 नारकियोंके इसका होना असंभव है, उनके आदिके चार ही गुण स्थान होते हैं, आगेके नहीं। 11 प्रतिमाओंको मनुष्य ही धारण .. कर सकता है, तिर्यञ्च नहीं। .... : 6 प्रमत्त गुणस्थान न यस्य प्रतिपद्यन्ते कषाया द्वादशोदयम्। व्यक्ताव्यक्तप्रमादोऽसौ प्रमत्तः संयतः स्मृतः // 8 // जिस पुरुषके अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषाय उदयको प्राप्त नहीं होते हैं, तथा जिसके व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद पाया जाता है, वह प्रमत्तसंयत माना गया है // 8 // ... - भावार्थ-मुनिव्रत या सकलसंयमके धारण करनेदाले जीवके - यह छठा गुणस्थान होता है। ऊपर पाँचवें अध्यायमें जिस मुनिव्रत का वर्णन किया गया है, वह सब इसी गुणस्थानका वर्णन जानना चाहिए / भेद केवल इतना ही है, कि जब वह साधु आत्मोपयोग में अनुद्यत या असावधान रहता है, तब वह प्रमत्तसंयत या षष्ठ ...गुणस्थानवर्ती माना जाता है और जब वह आत्मोपयोगमें उद्यत, या तल्लीन रहता है, तब वह अप्रमत्तसंयत या सप्तम गुणस्थानवर्ती माना जाता है। छठे और सातवें गुणस्थानका काल अन्तमुहूर्त मात्र माना गया है, सो जिस प्रकार मनुष्योंके नेत्रोंकी पलकें जागृत अवस्थामें खुलती. और बन्द होती रहती हैं, इसी प्रकार साधु भी छठे और सातवें गुणस्थानमें आता जाता रहता है, यहाँ तक कि चलते-फिरते खाते-पीते भी उसके इन दोनों गुणस्थानोंका परिवर्तन होता रहता है, एक मुहूर्तकालमें भी वह सैकड़ों बार प्रमत्तसंयतसे अप्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतसे . प्रमत्तसंयत हो
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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