________________ 76 जैनधर्मामृत का और तत्त्वोंका दृढ़ श्रद्धान इसके पाया जाता है। प्रथम अध्यायमें जो जघन्य अन्तरात्माका वर्णन किया गया है वह यही चतुर्थ गुणस्थानवी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव है। यहाँ तक के चारों गुणस्थान चारों गतियोंके जीवोंके होते हैं। 5 देशसंयत गुणस्थान यस्त्राता त्रसकायानां हिंसिता स्थावराङ्गिनाम् / अपक्काष्टकपायोऽसौ संयताऽसंयतो मतः // 7 // जो त्रसकायिक जीवोंका रक्षक है, किन्तु स्थावर प्राणियोंका हिंसक है और जिसकी प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन ये आठ कषाय अपक्क हैं, दूर नहीं हुई हैं, वह जीव संयतासंयत माना गया है॥७॥ .. भावार्थ-जिस जीवने सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके . साथ-साथ श्रावकके व्रतोंको धारण कर लिया है उसके यह पाँचवाँ गुणस्थान होता है। चौथे अध्यायमें श्रावक के जिन 12 व्रतोंका और 11 प्रतिमाओंका वर्णन कर आये हैं, वह सब इस पंचम गुणस्थानकाः ही जानना चाहिए। इस गुणस्थानका जीव त्रसजीवोंकी हिंसाका त्यागी होता है, इसलिए तो वह 'संयत' कहलाता है, किन्तु गृहस्थाश्रममें स्थावर जीवोंकी हिंसा बच नहीं सकती; खाने-पीने आदिमें अनिवार्य स्थावरहिंसा होती है, अतः वह स्थावरहिंसाकी अपेक्षा "असंयत' है, और इस प्रकार विभिन्न दो दृष्टियोंकी अपेक्षा एक साथ 'संयतासंयत' कहलाता है। इसीके दूसरे नाम. . 'देशसंयत' 'देशविरत' 'उपासक' 'श्रावक' आदि हैं। मनुष्य और तिर्यंच इन. दो ग़तियोंके जीव ही इस गुणस्थानके धारक हो सकते हैं, देव और