________________ षष्ठ अध्याय 175 गुड़के मिला देने पर उनका एक खटमिट्टा स्वाद बन जाता है, जिसे न गुरूप ही कह सकते हैं और न दहीरूप ही। इसी प्रकार इस गुणस्थानमें जिस जातिके परिणाम होते हैं, उन्हें न सम्यगदर्शनरूंप ही कह सकते हैं, और न मिथ्यादर्शन रूप ही। किन्तु दोनोंके सम्मिश्रणसे एक तीसरी ही जातिके मिश्र परिणाम हो जाते हैं, इसीलिए इसका नाम मिश्र या सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुण.. स्थान है। ... 4 असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान . . पाकाचारित्रमोहस्य व्यस्तप्राण्यक्षसंयमः / :. त्रिवेकतमसम्यक्त्वः सम्यग्दृष्टिरसंयतः // 6 // . . इस गुणस्थानका जीव चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे न इंन्द्रिय संयम ही धारण कर पाता है और न प्राणिसंयम ही, इसलिए वह असंयत कहलाता है। तथा दर्शन मोहनीय कर्मके अभाव हो. जानेसे पूर्वोक्त तीन प्रकारके सम्यग्दर्शनमें से किसी एक सम्यग्दर्शनको धारण करता है, इसलिए यह असंयतसम्यग्दृष्टि कहलाता है // 6 // भावार्थ-इस गुणस्थानका जीव सम्यग्दृष्टि होने के कारण तत्त्वार्थका दृढ़ श्रद्धानी होता है, पूर्वोक्त सप्त भयसे मुक्त रहता है, विवेकवान् होता है। अन्तरंगमें इन्द्रिय-सम्बन्धी विषयोंसे ग्लानि रखता है, सांसारिक बन्धनोंसे छूटना चाहता है, किन्तु चारित्र मोहनीय कर्मके उदय होनेसे लेशमात्र भी संयम नहीं धारण कर पाता है, इसलिए यह न इन्द्रिय-विषयोंसे विरत होता है और न बस-स्थावर जीवोंकी हिंसासे ही। किन्तु एकमात्र जिनोक्त आज्ञा