________________ पञ्चम अध्याय तान्तियोपिति यः सक्तः सम्यग्ज्ञानातिधिप्रियः। स गृहस्थो भवेन्नूनं मनोमर्कटसाधकः // 50 // जो पुरुप क्षमारूपी स्त्रीमें आसक्त है, जिसे सम्यग्ज्ञानरूपी अतिथि प्यारा है, वह मनरूपी चन्दरको वशमें करनेवाला निश्चयसे सच्चा गृहस्थ है // 50 // ग्राम्यमर्थ बहिश्चान्तर्यः परित्यज्य संयमी / वानप्रस्थः स विज्ञेयो न वनस्थः कुटुम्बवान् // 5 // जिसने नगर सम्बन्धी सभी बाह्य और आभ्यन्तर अर्थोंको छोड़कर संयमी वन वनवास अंगीकार किया है, उसे 'वानप्रस्थ' जानना चाहिए। किन्तु संयम-हीन होकर वनमें रहनेवाला कुटुम्बवान् पुरुष वानप्रस्थ नहीं हो सकता // 51 // संसाराग्निशिखाच्छेदो येन ज्ञानासिना कृतः / तं शिखाच्छेदिनं प्राहुर्ननु मुण्डितमस्तकम् // 52 // जिस पुरुपने ज्ञानरूपी तलवारके द्वारा संसाररूपी अमिकी शिखाका छेद कर दिया है, निश्चयसे उसे ही 'मुण्डितमस्तक' कहते हैं // 52 // कर्मात्मनोविवेक्ता यः क्षीर-नीरसमानयोः / भवेत्परमहंसोऽसौ नासिवत्सर्वभक्षकः // 53 // __ जो पुरुष दूध और पानीके समान एकमेक होकर मिले हुए कर्म और आत्माका विवेक्ता अर्थात् पृथक् पृथक करने वाला है वह ' परमहंस' कहलाता है। किन्तु खगके समान सर्वभक्षी पुरुष परमहंस नहीं कहला सकता // 53 //