________________ 168 जैनधर्मामृत ज्ञानैमनो वपुवृत्तनियमैरिन्द्रियाणि च / / नित्यं यस्य प्रदीप्तानि स तपस्वी न वेपवान् // 54 // जिसका मन ज्ञानसे, शरीर चारित्रसे और इन्द्रियाँ नियमोंसे प्रदीप्त हैं, वह 'तपस्वी' है। किन्तु किसी अमुक वेपका धारक तपस्वी नहीं कहलाता // 54 // पञ्चेन्द्रियप्रवृत्ताख्यास्तिथयः पञ्च कीर्तिताः / संसारेऽश्रेयहेतुत्वात्ताभिर्मुक्तोऽतिथिर्भवेत् // 55 // . पाँचों इन्द्रियोंके विषयों में प्रवृत्त होनेके कारण तन्नामवाली पाँच तिथियाँ कही गई हैं / वे संसारमें अकल्याणकी ही कारण हैं, जो इस प्रकारकी तिथियोंसे मुक्त हो जाता है, वह 'अतिथि' कहलाता है // 55 // अद्रोहः सर्वसत्वेषु यज्ञो यस्य दिने दिने / स पुमान् दीक्षितात्मा स्यान्न त्वजादियमाशयः // 56 // जिसका सर्व प्राणियोंमें द्रोह-रहित यज्ञ दिन प्रति दिन चालू रहता है, वह पुरुष 'दीक्षितात्मा' कहलाता है। किन्तु अजा (बकरा) आदिके घात करनेके लिए यमके समान अभिप्राय वाला पुरुष 'दीक्षित' या 'दीक्षीतात्मा' नहीं कहलाता // 56 // दुष्कर्मदुर्जनास्पर्शी सर्वसत्त्वहिताशयः। . . . . . स श्रोत्रियो भवेत्सत्यं न तु यो बाह्यशौचवान् // 50 // .. . . जो दुष्कर्मरूपी दुर्जनोंके स्पर्शसे रहित है, जिसका हृदय सर्वप्राणियोंका हितैपी है, वही सच्चा 'श्रोत्रिय' है। जो केवल बाहरी शौचवान् है, वह 'श्रोत्रिय' नहीं कहला सकता // 57|| - : : :