________________ 166 जैनधर्मामृत नियममें और यममें सर्वदा उच्च रहता है, वह 'अनूचान' कहा गया है // 45 // योऽक्षस्तेनेप्वविश्वस्तः शाश्वते पथि तिष्ठतः / समस्तसत्त्वविश्वास्यः सोऽनाश्वानिह गीयते // 46 // जो इन्द्रिय रूपी चोरोंमें विश्वास नहीं करता, सदा शाश्वत पथ मोक्षमार्गमें विद्यमान है और समस्त प्राणियोंके विश्वासका पात्र है, वह इस संसारमें 'अनाश्वान्' कहा जाता है // 46 // तत्त्वे पुमान् मनः पुंसि स तुप्यक्षकदम्बकम् / यस्य युक्तं स योगी स्यान्न परेच्छादुरीहितः // 47 // जिस पुरुषका मन और इन्द्रिय-समूह तत्त्वाभ्यासमें और परम पुरुषकी प्राप्तिमें युक्त है, वह 'योगी' है किन्तु जो पर वस्तुकी इच्छासे पीड़ित है, वह योगी नहीं कहला सकता // 47 // कामः क्रोधो मदो माया लोभश्चेत्यग्निपञ्चकम् / येनेदं साधितं स स्यात्कृती पञ्चाग्निसाधकः // 48 // जिस पुरुषने काम, क्रोध, मान, माया और लोभ इन पाँच प्रकारकी अग्नियोंको साध लिया है अर्थात् अपने वशमें करके शान्त कर दिया है, वह कृती 'पञ्चाग्निसाधक' कहलाता है // 48 // ज्ञानं ब्रह्म दया ब्रह्म ब्रह्म कामविनिग्रहः / सम्यगत्र वशन्नात्मा ब्रह्मचारी भवेन्नरः // 46 // ज्ञानको ब्रह्म कहते हैं, दयाको ब्रह्म कहते हैं और कायविकारके जीतनेको भी ब्रह्म कहते हैं, अतएव ज्ञान, दया और काम-विजयमें अच्छी तरह बसनेवाला मनुष्य 'ब्रह्मचारी' कहलाता है // 49 //