________________ पञ्चम अध्याय 165 धर्मकर्मफलेऽनीही निवृत्तो धर्मकर्मणः / तं निर्मममुशन्तीह केवलात्मपरिच्छिदम् // 4 // .. जो धर्म और कर्मके फलमें इच्छा-रहित है, और धर्म-कर्मके * फलसे निवृत्त हो चुका है ऐसे केवल आत्मज्ञानवानको 'निर्मम' कहते हैं // 41 // .. यः कर्मद्वितयातीतस्तं मुमुक्षु प्रचक्षते / पाशैलॊहस्य हेम्नो वा यो बद्धो बद्ध एव सः // 42 // जो पुण्य और पाप इन दोनों प्रकारके कर्मोंसे रहित है वह 'मुमुक्ष' कहलाता है। जो लोहेके (पापके) अथवा सोनेके (पुण्यके) पाशोंसे बँधा है, वह 'बद्ध' ही है // 42 // . निर्ममो निरहदारो निर्माणमदमत्सरः / निन्दायां संस्तवे चैव समधीः शसितव्रतः // 43 // जो ममता रहित है, अहंकार-रहित है, मान मद और मत्सर भावसे भी रहित है और निन्दा व स्तुतिमें सम-बुद्धि रहता है, वह प्रशंसनीय व्रतका धारक 'समधी' कहलाता है // 43 // . ___योऽवगम्य यथानाड्यं तत्त्वं तत्वैकभावनः / __वाचंयमः स विज्ञेयो न मौनी पशुवन्नरः // 44 // - जो आगमानुसार तत्त्वको जानकर निरन्तर एक मात्र तत्त्वा भ्यासमें ही अपनी भावनाको रखता है, उसे 'वाचंयम' जानना चाहिए। किन्तु पशुके समान मौनी मनुप्य वाचंयम नहीं कहलाता // 44 // श्रुते व्रते प्रसंख्याने संयमे नियमे यमे। . . . यस्योच्चैः सर्वदा चेतः सोऽनूचानः प्रकीर्तितः // 45 // .. जिस मनुष्यका चित्त श्रुतमें, व्रतमें, प्रत्याख्यानमें, संयममें,