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द्वितीय अध्याय मोहवान् मुनि मोक्षमार्ग पर स्थित नहीं है क्योंकि मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ माना गया है ॥१०७॥
सम्यक्त्वके समान कोई श्रेयस्कर नहीं न सम्यक्त्वसमं किञ्चित्काल्ये त्रिजगत्यपि ।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥१०॥ त्रिकालमें और त्रिलोकमें सम्यग्दर्शनके समान प्राणियोंका कोई श्रेयस्कर मित्र नहीं है और मिथ्यादर्शनके समान कोई अश्रेयस्कर शत्रु नहीं है ॥१०८॥
सम्यग्दृष्टि नीच योनिमें जन्म नहीं लेते सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यनपुंसकत्रीत्वानि ।
दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः ॥३०॥ ' जो जीव व्रत आदिकसे रहित होकर भी सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हैं वे मरकर नारकी या तियच नहीं होते, नपुंसक और स्त्रियोंमें पैदा नहीं
होते । मनुप्योंमें जन्म लेने पर नीच कुलमें जन्म नहीं लेते, विकृतांग ... और अल्पायु नहीं होते। तथा दरिद्रताको भी प्राप्त नहीं होते हैं ॥१०९॥
सम्यग्दृष्टि मनुष्य मानव-तिलक होते हैं ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः । महाकुला महार्थाः मानवतिलका भवन्ति दर्शनशरणाः ॥११०॥
सम्यग्दृष्टि जीव यदि मनुष्योंमें उत्पन्न हों, तो ओज, तेज, विद्या, वीर्य, यश, ऋद्धि, विजय और वैभवसे सम्पन्न, महाकुलीन, महापुरुषार्थी, ऐसे मानव-तिलक अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं॥११०॥
__ सम्यग्दृष्टि स्वर्गीय दिव्य सुख भोगते हैं
अष्टगुणपुष्टितुष्टाः दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः । . .. .. अमराप्सरसा. परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे ॥१११॥