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· जैनधर्मामृत जिनेन्द्र-भक्त सम्यग्दृष्टि जीव स्वर्गमें अणिमादि अष्टगुणोंकी प्राप्तिसे सन्तुष्ट और प्रकृष्ट सौभाग्यसे युक्त होकर देव और अप्सराओंकी परिपदमें चिरकाल तक सांसारिक सुखोंका उपभोग करते हैं ॥१११॥
सम्यग्दृष्टि सम्राट-पद प्राप्त करते हैं नवनिधिसप्तद्वयरत्नाधीशाः सर्वभूमिपतयश्चक्रम् ।
वर्तयितुं प्रभवन्ति स्पष्टदृशः क्षत्रमौलिशेखरचरणाः ॥१२॥ वहाँ से च्युत होकर वे ही सम्यग्दृप्टि नीव नवनिधि और चौदह रत्नोंके अधीश्वर बनकर एवं पटखण्ड भूमिके स्वामी होकर अधीनस्थ राज-क्षत्रियोंकी सुकुट-मालाओंपर चरण-निक्षेप करते हुए सुदर्शनचक्र चलानेमें समर्थ होते हैं, अर्थात् चक्रवर्ती सम्राट बनते हैं ॥११२॥
सम्यग्दृष्टि तीर्थकर बनते हैं अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नुतपादाम्भोजाः । दृष्ट्या सुनिश्चितार्थाः वृपचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्याः ॥११३॥
वे ही सम्यग्दृष्टि जीव पुनः अमर, असुर, नरपति और यमधरपति अर्थात् मुनियोंके स्वामी गणधरादिके द्वारा नमस्कृत होकर
और त्रैलोक्यको अभय दान दे लोक-शरण्य बनकर धर्मचक्रके धारक तीर्थकर होते हैं ॥११३।। भावार्थ-सम्यग्दर्शनके प्रभावसे ही जीव तीर्थंकर पद पाता है।
अन्तमें सम्यग्दृष्टि शिव-पद प्राप्त करते हैं । शिवमजरमरुजमक्षयमव्यावाधं विशोकभयशङ्कम् । ... काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणाः ॥११॥