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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं ५५. सव्वओ वि नईओ कमेण जह सायरम्मि निवडंति । तह भगवइ अहिंसा सवे धम्मा सम्मिल्लति ।।
-सम्बोधसत्तरी ६ जैसेस-भी नदियां क्रमशः समुद्र में विलीन हो जाती हैं, वैसे ही
सब धर्म अहिंसा में समा जाते हैं । ५६. अहिंसैव संसार-मरावमृत सारणिः ।
-योगशास्त्र २१५० संसाररूप मरुस्थल में अहिंसा ही एक अमृत का झरना है।
अहिंसव जगन्माता ऽ हिसैवानन्दपद्धतिः । अहिंसव गतिःसाध्वी श्रीरहिसैव शाश्वती ।
-ज्ञानार्णव पृ० ११५ अहिंसा ही जगत् की माता है, अहिंसा ही आनन्द का मार्ग है,
अहिंसा ही उत्तम गति है तथा अहिंसा ही शाश्वत लक्ष्मी है। ५८. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।
तस्वार्थसूत्र ८ प्रमत्तयोग (प्रमादपूर्वक) के द्वारा पर-प्राणों का नाश करनाहिंसा है। हिंसन्नियं वा न कहं कहेज्जा।
-सूत्रकृतांग १०.१० ऐसी कोई कथा-बात भी नहीं कहनी चाहिए, जिससे हिंसा को
बढ़ावा मिले। ६०. दयाधम्मस्स खंतिए विप्पसीइज्ज मेहावी ।
-उत्तराध्ययन ५॥३० बुद्धिमान को चाहिए कि वह क्षमारूप जलसे दयारूप लता को प्रफुल्लित बनाए रखे।
दयाधम्मस