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________________ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं अनाशातना बहुमानकरणं च विनयः । -जनसिद्धान्तदीपिका १२५ आशातना नहीं करना एवं योग्य व्यक्तियों का बहुमान करना विनय है। १८. व्रत-विद्या-वयोधिकेषु नीचराचरणं विनयः । -नीतिवाक्यामृत १११६ व्रत, विद्या एवं उम्र में बड़ों के सामने नम्र आचरण करना विनय है। १६. जम्हा विणयइ कम्म, अट्ठविहं चाउरंतमोक्खाय । तम्हाउ वयंति विउ, विणयंति विलीणससारा । -स्थानांग ६१५३१ टोका विनय आठों कर्मों को दूर करता है, उसमे चारगति के अन्तरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है-इसीलिए सर्वज्ञ भगवानइसको विनय कहते हैं। विनयति क्लेशकारकमष्टप्रकारं कर्म इतिः विनयः । देश-कालाद्यपेक्षया यथोचितप्रतिपत्तिलक्षणे। -प्रवचनसारोबार क्लेशकारी आठ कर्मों को दूर करता है, इसलिए वह विनय है। देश-काल आदि की अपेक्षा से यथायोग्य प्रतिपत्ति के अर्थ में यह विनय शब्द काम आता है। २१. विणएण णरो, गंधेण चंदणं सोमयाइ रणियरो। महुररसेण अमयं, जणपियत्तं लहइ भुवणे ॥ धर्मरत्नप्रकरण, १ अधिकार जैसे सुगन्ध के कारण चंदन, सौम्यता के कारण चन्द्रमा और मधुरता के कारण अमृत जगत्प्रिय हैं, ऐसे ही विनय के कारण मनुष्य लोगों में प्रिय बन जाता है ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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