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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं एविदियत्था य मणस्स अत्था,
दुक्खस्स हेऊ मणुयस्स रागिणो। ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेंति किंचि ॥
-उत्तराध्ययन ३२॥१०० मन एवं इन्द्रियों के विषय रागात्मा को ही दु:ख के हेतु होते है ।
वीतराग को तो वे किंचित् मात्र भी दुःखी नहीं कर सकते । १५ जो ण वि वट्टड रागे, ण वि दोसे दोण्ह मज्भयारंमि । सो होइ उ मज्झत्थो सेसा सब्वे अमज्झत्था ।।
-आवश्यक निर्यक्ति ८०४ जो न राग करता है और न द्वेष करता है, वही वस्तुतः मध्यस्थ है, बाकी सब अमध्यस्थ हैं।
णाणी रागप्पजहो, सव्वदन्वेसु कम्म मझगदो। णो लिप्पइ रजएण दु, कद्दममझे जहा कणयं ।। अण्णाणी पुण रत्तो, सव्व दवेस कम्म मज्झगदो। लिप्पदि कम्मरएण दु, कद्दममज्झे जहा लोहं ।
- समयसार २१८-२१६ जिस प्रकार कीचड में पड़ा हुआ सोना, कीचड से लिप्त नहीं होता, उमे जंग नहीं लगता है, उसी प्रकार ज्ञानी मंसार के पदार्थ-समूह में विरक्त होने के कारण कर्म करता हआ भी कर्म से लिप्न नहीं होता। किन्तु जिम प्रकार लोहा कीचड में पडकर विकृत हो जाता है, उसे जंग लग जाता है, उमी प्रकार अज्ञानी पदार्थों में राग-भाव रखने के कारण कर्म करते हए विकृत हो जाता है । कर्म से लिप्त हो जाता है।