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________________ १५ तपोमार्ग नो पूयणं तवसा आवहेज्जा। -सूत्रकृतांग १७।२७ तप के द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की अभिलापा नहीं करनी चाहिए। मक्खं खु दीसइ तवो विसेसो, न दीसई जाइ विसेस कोई। --उत्तराध्ययन १२१३७ तप (चरित्र) की विशेषता तो प्रत्यक्ष में दिखाई देती है। किन्तु जाति की कोई विशेषता नजर नहीं आती। ३. तवो जोई जीवो जोइ ठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजमजोगसन्ती, होमं हुणामि इसिणं पसत्थं ।। -उत्तराध्ययन १२।४४ तप ज्योति अर्थात् अग्नि है। जीव ज्योति-स्थान है । मन, वचन और काया के योगन वा-आहुति देने की कड़छी है । शरीर कारीषांग—अग्नि प्रज्वलित करने का साधन है । कर्म जलाए जानेवाला इंधन है । संयमयोग शान्ति पाठ है । मैं इस प्रकार का यज्ञ-होम करता हूं जिसे ऋषियों ने श्रेष्ठ बताया है। ४. भवकोडी-संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ । -उत्तराध्ययन ३०१६
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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