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जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ
एगप्पा अजिए सत्त ।
-उत्तराध्ययन २३१३८ स्वयं की अविजित-असंयत आत्मा ही स्वयं का एक शत्र है। ११. सद्देसु अ रूवेसु अ,
___ गंधेसु रसेसु तह य फासेसु । न वि रज्जइ न वि दुस्सइ, एसा खलु इंदिअप्पणिही ॥
-दशवकालिक नियुक्ति २६५ शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में जिसका चित्त न तो अनुरक्त होता है और न द्वेप करता है, उसी का इन्द्रिय-निग्रह प्रशस्त होता है।
जस्स खलु दुप्पणिहिआणि इंदिआईतवं चरंतस्म । सो हीरइ असहीणेहिं सारही व तुरंगेहिं ।।
-दशवकालिकनियुक्ति २६८ जिस माधक की इन्द्रियाँ, कुमार्गगामिनी हो गई हैं, वह दुष्ट घोड़ों के वश में पड़े सारथि की तरह उत्पथ में भटक जाता है।