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१५. चारितं खलु धम्मो, धम्मो जो सों समो त्तिणिदिट्ठो । मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो
हु
समो ॥
- प्रवचनसार ११७
१६.
१७.
जैनधर्म की हजार शिक्षाए
जिसप्रकार मुझको दुःख प्रिय नहीं है, उसीप्रकार सभी जीवों को दुःख प्रिय नहीं है, जो ऐसा जानकर न स्वयं हिंसा करता है न किसी से हिंसा करवाता है, वह समत्वयोगी ही सच्चा श्रमण है ।
१८.
चारित्र ही वास्तव में धर्म है, और जो धर्म है वह समत्व है । मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का अपना शुद्ध-परिणमन ही समत्व है ।
समणो समसुह- दुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ।
- प्रवचनसार १।१४
जो
सुख-दुःख में समानभाव रखता है, वही वीतराग श्रमण शुद्धउपयोगी कहा गया है ।
जस्स सामाणिओ अप्पा, सजमे णिअमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासिअं | - अनुयोगद्वार १.७
जिसकी आत्मा सयम में, नियम मे एवं तप मे सुस्थिर है, उसी की सच्ची सामायिक होती है - ऐसा केवली भगवान ने कहा है ।
जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु अ । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासिअं |
- अनुयोगद्वार १२८
जोस (कीट, पंतगादि) और स्थावर ( पृथ्वी, जल आदि ) सब जीवों के प्रति सम है अर्थात् समत्वयुक्त है, उसी की सच्ची सामायिक होती है - ऐसा केवली भगवान ने कहा है ।