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५.
जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ
व्यवहारे सुषुप्तो यः, स जागर्त्यात्मगोचरे । जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् स सुप्तश्चात्मगोचरे ॥
-समाधिशतक ७८
जो व्यवहार में सोया हुआ है, वह आत्मा के विषय में जागृत है और जो लोक व्यवहार में जागृत है, वह आत्मा के विषय में सोया हुआ है।
६.
अप्पा अप्पर जइ मुणइ, तउ णिव्वाणं लहेइ । पर अप्पा जउ महि तह संसार भइ |
- योगसार १२
यदि तू अपने से अपने ( आत्मा ) को पहचान लेता है तो तू निर्वाण प्राप्त कर लेगा, यदि पर- पदार्थों को अपना (आत्म-स्वरूप) समझ लिया तो संसार में भ्रमण करता रहेगा ।
जो परमप्पा सो जिउहं जो हउं सो परमप्पु
योगसार २२ जो परमात्मा है, वही मैं ( आत्मा ) हूं, जो आत्मा है, वही परमात्मा (बन सकता ) है ।
तिथहि देवल देववि इम सुई केवलि वुत्तु 1 देहा देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिभंतु
— योगसार ४२
तीर्थ एवं देवालय में भगवान नहीं है - यह श्रुतकेवली का वचन है । इम देह रूपी देवालय में ही भगवान है, यह निर्भ्रान्त रूप से जान लेना चाहिए ।