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________________ आत्म-दर्शन जे अणण्णदंसी से अणण्णागमे, जे अणण्णारामे, से अणण्णदंसी। - आचारांग १।२।६ जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नही रखता है. वह 'स्व' से अन्यत्र रमता भी नही है और जो 'स्व' से अन्यत्र रमता नही है, वह 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि भी नही रखता है । R. वदणियमाणि धरता, मीलाणि तहा तव च कुव्वंता। परमट्टबाहिरा जे, णिवाण ते ण विदंति ।। -समयसार १५३ भले ही व्रत नियम को धारण कर तप आर शील का आचरण करे, किन्तु जो परमार्थ रूप आत्मबोध से शून्य है, वह कभी निर्वाण प्राप्त नही कर मकता। ३. ण याणति अप्पणो वि, किन्नु अोम । -आचारांगचूर्णि १।३।३ जो अपने को नही जानता, वह दूसरे को क्या जानेगा ? ४. सुत्ता अमुणो, मुणिणो सया जागरति । -आचारांग १२३३१ आत्मदर्शन से शून्य अज्ञानी सदा सोये रहते है और आत्मद्रष्टा ज्ञानी मदा जागृत रहते है। १३१
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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