________________
उद्बोधन
१२५
तू महासमुद्र को तर चुका है, अब किनारे आकर क्यों बैठ गया ? उस पार पहुंचने के लिए शीघ्रता कर । हे गौतम ! क्षण भर के
लिए भी प्रमाद करना उचित नहीं है। १७. मच्चुणाऽब्भाहओ लोगो, जराए परिवारिओ।
- उत्तराध्ययन १४।१३ जग मे घिरा हुआ यह ममार मृत्यु से पीडित हो रहा है। १८.
जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई । धम्म व कुणमाणस्म, सफला जन्ति राइओ।
- उत्तराध्ययन १४।२५ जो रात्रिया बीत जाती है, वे पुन. लोटकर नहीं आती। किन्तु जो धर्म का आचरण करता रहता है, उसकी रात्रिया सफल हो
जाती है। १६. जस्सत्थि मच्चुणा सक्ख, जस्स वऽत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्मामि, मो हु कंग्खे सुए सिया ।।
-उत्तराध्ययन १४।२७ जिमकी मृत्यु के माथ मित्रता हो, जो उससे भागकर बच सकता हो, अथवा जो यह जानता हो कि मै कभी मरूँगा नही, वही कल पर भरोसा कर सकता है (अन्यथा कल का क्या विश्वाम ?) अप्पणा अनाहो मंतो, कहं नाहो भविस्म ?
-उत्तराध्ययान २०१२ तू स्वय अनाथ है, तो फिर दूसरे का नाथ कैसे हो सकता है ?
कालेण काल विहरेज्ज रठे, बलाबलं जाणिय अण्पणो य ।
-उत्तराध्ययन २०११४
२०.
२१.