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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं ६. भुच्चा पिच्चा सुहं सुवई, पावसमणेत्ति वुच्चई ।
-उत्तराध्ययन १७५३ जो श्रमण खा-पीकर खूब सोता है, समय पर धर्माराधना नहीं करता, वह 'पाप श्रमण' कहलाता है।
७. न हु कइतवे समणो।
-आचारांग नि० २२४ जो दम्भी है, वह श्रमण नहीं हो सकता। ८. जो भिदेइ खुहं खलु, सो भिक्खू भावओ होइ।
-उत्तराध्ययन नि० ३७५ जो मन की भूख (तृष्णा) का भेदन करता है, वही भावरूप में भिक्ष है। ६. नाणी संजमसहिओ नायव्वो भावओ समणो।
- उत्तराध्ययन नि० ३८६ जो ज्ञानपूर्वक संयम की साधना में रत है, वही भाव (सच्चा) श्रमण है।
इह लोगणिरावेक्खो,
__अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि । जुत्ताहार विहारो, रहिदकसाओ हवे समणो ।
-प्रवचनसार ३२२६ जो कषायरहित है, इस लोक में निरपेक्ष है, परलोक में भी अप्रतिबद्ध (अनासक्त) है, और विवेकपूर्वक आहार विहार की चर्या रखता है, वही सच्चा श्रमण है।