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श्रमणधर्म
समे य जे सव्वपाणभूतेसु से हु समणे।
-प्रश्नव्याकरण २५ जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता है, वस्तुत: वही श्रमण है। विहंगमा व पुप्फेसु दाणभत्त सणे रया।
-दरावकालिक २३ श्रमण-भिक्ष गृहस्थ से उसी प्रकार दान स्वरूप भिक्षा आदि ले,
जिस प्रकार कि भ्रमर पुष्पों से रस लेता है। ३. वयं च वित्ति लब्भामो, न य कोइ उवहम्मइ।
-दशकालिक ११४ हम (श्रमण) जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की इस प्रकार पूर्ति
करे कि किसी को कुछ कष्ट न हो। ४. महुगारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया।
___-दशकालिक १५ आत्मद्रष्टा साधक मधुकर के समान होते हैं, वे कहीं किसी एक व्यक्ति या वस्तु पर प्रतिबद्ध नहीं होते । जहां रस-गुण मिलता है,
वही से ग्रहण कर लेते हैं। ५. अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति ममाइयं । .
-वशवकालिक ६।२२ अकिंचन मुनि और तो क्या, अपने देह पर भी ममत्व नहीं रखते।