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________________ तेजोमय नक्षत्र आचार्य स्थूलभद्र ७६ प्रशिक्षण देने के लिए मनी शकटाल ने गणिका कोशा के पास प्रेपित किया था। उर्वशी के समान रूपश्री से सम्पन्ना कोशा मगध की अनिन्द्य सुन्दरी थी। पाटलिपुत्र की वह अनन्य शोभा थी। मगध का युवा वर्ग, राजा, राजकुमार तक उसकी कृपा पाने को लालायित रहते थे। कामकला से सर्वथा अनभिज्ञ षोडश वर्षीय नवयुवक स्थूलभद्र कोशा के द्वार तक पहुचकर वापस नहीं लौटा। उसका भावुक मन कोणा गणिका के अनूप रूप पर पूर्णत मुग्ध हो गया। मनी शकटाल को स्थूलभद्र के जीवन से प्रशिक्षण मिला । उसने अपने छोटे 'पुनश्रीयक को वहा भेजने की भूल नही की। राजतन्त्र का बोध देने हेतु उसे अपने साथ रखता एव राज्य-सचालन का प्रशिक्षण देता था। बुद्धिकुशल श्रीयक राजा नन्द का अगरक्षक वना। पृथ्वी की तरह विश्रामभाजन श्रीयक विनय आदि गुणो के कारण राजा को द्वितीय हृदय की तरह प्रतीत होने लगा। मगध का विद्वान् कवीश्वर, वैयाकरण-शिरोमणि, द्विजोत्तम, वररुचि नन्द राज्य में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने का प्रयास कर रहा था। वह प्रतिदिन राजा की प्रशसा मे स्वरचित १०८ श्लोक राजसभा मे सुनाया करता था ।महामात्य शकटाल के द्वारा मान एक बार प्रशसा किए जाने पर वररुचि को प्रति श्लोक के बदले एक दीनार (स्वर्ण मुद्रा) प्राप्त होने लगी। अमात्य द्वारा की गई प्रशस्ति मे प्रमुख हेतु शकटाल की पत्नी लक्ष्मी थी। जिसको प्रसन्न करने मे वररुचि को विशेष प्रयत्न करना पड़ा था। प्रतिदिन १०८ दीनारो (स्वर्ण मुद्राओ) का राजा नन्द के द्वारा प्रदीयमान यह तुष्टिदान महामात्य शकटाल के लिए चिन्तनीय विपय बन गया। राजतन का सचालन अर्थतन से होता है। अत राजनीतिक धुरा के सफल सवाहक मन्त्री को अर्थ की सुरक्षा का विशेप ध्यान रखना पडता है। कोष को उपेक्षित कर कोई भी राज्य सशक्त नही बन सकता। मेधावी मन्त्री शकटाल अपने विषय मे पूर्ण सावधान एव सजग था अत्थक्खय पलोइय, भणियममच्चेण देव । किमिमस्स। दिज्जइ वज्जरइ निवो, सलाहिओ ज तए एसो ॥१३॥ (उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पृष्ठ २३५) अर्थ-व्यय पर विचार-विमर्श करते हुए एक दिन महामात्य ने राजा से निवेदन किया-"पृथ्वी-नायक | वररुचि को १०८ दीनारो का यह दान प्रतिदिन । किस उद्देश्य से दिया जा रहा है ?" राजा नन्द का उत्तर था-"महामात्य । तुम्हारे द्वारा प्रशसित होने पर ही वररुचि को यह दान दिया गया है । हमारी ओर से ही देना होता तो हम पहले ही इसे प्रारम्भ कर देते।"
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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