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४०० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
से धार्मिकता के साथ दर्शन, न्याय और काव्य-जगत् भी उपकृत है।
'जैन सिद्धात दीपिका', 'मिक्षु न्याय कणिका' और 'मनोनुशासनम्' मिद्धात, न्याय तथा योगविपय की सुन्दर प्रकाशिकाए है।
__'काल यशोविलास' पूज्य कालगणी पर लिखा गया राजस्थानी गेय काव्य है। इसकी रचना मे लेखक का महान् शब्दशिल्पी रूप निखर आया है। विषयवर्णन की शैली भी वेजोड है। माणक महिमा, डालम-चरित्न व मगन-चरित्र से जीवन-चरित्न लिखने की दिशाए अत्यन्त स्पष्ट हुई है, तथा भरत मुक्ति, आपाढभूति आदि रचनाओ से काव्यधारा को बल मिला है। साहित्य-जगत् को उसकी सबसे महत्त्वपूर्ण देन आगम-वाचना है । आगम-साहित्य का टिप्पण, सस्कृत छाया सहित आधुनिक सदर्भ मे सुसम्पादन और हिन्दी अनुवाद का कार्य आगम-वाचनाप्रमुख आचार्यश्री तुलसी के निर्देशन मे सुव्यवस्थित चल रहा है। निर्मल प्रज्ञा के धनी, प्रकाण्ड विद्वान व गभीर दार्शनिक मुनि श्री नथमल जी (वर्तमान मे युवाचार्य महाप्रज्ञ) आगम ग्रन्थो के सम्पादक व विवेचक हैं। अव तक आगम-सवधी विपुल साहित्य जनता के हाथो पहुच गया है। कई पुस्तके मुद्रणाधीन है, और कई पुस्तको की पाण्डुलिपिया तैयार हो गयी है।
तुलसी प्रभा, भिक्षु शब्दानुशासन की लघुवृत्ति, तुलसी मञ्जरी, तेरापथ का इतिहास तत्प्रकार का अन्य मौलिक साहित्य, कथा-साहित्य, मुक्तक-साहित्य, शोधनिबध, सगीत, कला, काव्य, कोश, विज्ञान, एकागी, गद्य, पद्य, एकाह्निक, शतक, एकाह्निक पचशति तेरह घटो मे एक सहस्र श्लोक-रचना, सौ, पाच सौ, डेढ हजार तक अवधानो से स्मरण शक्ति के प्रभावक प्रयोग प्रभृति विभिन्न प्रवृत्तिया आचार्य श्री तुलसी के शासनकाल की विशिष्ट उपलब्धिया है। ___ वे योगवाहक आचार्य है। उन्होने ध्यान, योग व बहुत लम्बे समय तक की एकात साधनाओ से अपने सयम योग के विशिष्ट भावेन उत्कर्प दिया है और अपने सघ को भी योग-साधना मे विशेप प्रगतिशील बनाने के लिए प्रणिधान कक्ष व अध्यात्म शिविरो का प्रयोग किया है। उपासक सघ जैसे प्रलम्वकालीन साधनाशिविरो से श्रावकश्राविका समाज मे भी नए चैतन्य का जागरण हुआ है। ___ आचार्य श्री तुलसी के शासनकाल मे तपोयोग की भूमिका भी बहुत विस्तृत हुई है। भद्रोतर तप, लघुसिंह तप, तेरह महीनो का आयम्बिल, एक सौ आठ दिन का निर्जल तप, आछ प्रयोग पर छह मासी, नव मासी, बारहमासी तपजैन शासन के तपोमय इतिहास की सुन्दर कडी है।
जैन समन्वय की दिशा में भी वे अनवरत प्रयत्नशील है। एक ही भगवान महावीर को अपता आराध्यदेव मानने वाला जैन समाज आज कई शाखाओ में विभक्त है। आधुनिक परिस्थितियो के सदर्भ मे एक-दूसरे का नकट्य व समन्वय की भूमिका पर विचार-विनिमय अपेक्षित ही नही अतिवार्य हो चुका है। उन्होने