SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३. शील-सिन्धु आचार्य शान्तिसागर दिगम्बर परम्परा मे आचार्य शान्तिसागर जी अतिशय प्रभावक आचार्य हुए है। उनकी प्रख्याति योगिराज एव महान् तपस्वी के रूप में भी है। उनका जन्म दक्षिण भारत के वेलगुल गाव मे वी०नि० २३९६ (वि. स. १९२६) में हुआ। वे भीमगोडा पाटिल के पुत्र थे। उनकी माता का नाम सरस्वती था। गृहस्थ जीवन मे शान्तिसागर जी का नाम सातगोडा था। उनका परिवार सुखी एव समृद्ध था। माता-पिता विशेष धार्मिक रुचि के थे। __ शान्तिसागर जी का विवाह नौ वर्ष की अवस्था मे कर दिया गया था। सयोग से विवाह के कुछ समय बाद ही पत्नी की मृत्यु हो गयी। माता-पिता ने उनका विवाह पुन करना चाहा पर वे पूर्णत अस्वीकृत हो चुके थे। मुनि जनो के प्रसग मे आने के कारण उनकी धार्मिक भावना उत्तरोत्तर विकास पाती रही। ब्रह्मचर्य का आजीवन व्रत स्वीकार कर तथा भोजन मै घृत, तेल आदि का परिहार कर उन्होने गृहस्थ जीवन मे तपस्वी जैसा जीवन जीना प्रारम्भ कर दिया। ____माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने के बाद मुनि देवेन्द्रकीति से उन्होने वी० नि० २४४० (वि० स० १९७०) मे क्षुल्लक-दीक्षा स्वीकार की। उनकी मुनि दीक्षा वी० नि० २४४७ (वि० स० १९७७) मे हुई थी। श्रमण भूमिका में प्रविष्ट हो जाने के बाद उनका नाम शान्तिसागर जी रखा गया था। आचार्य शान्तिसागर जी के व्यक्तित्व का बहिरग पक्ष जितना सवल था उससे अधिक सबल अतरग पक्ष भी था। लोगो के जीवन पर उनके साधनाशील जीवन का दिन-प्रतिदिन प्रभाव बढता गया। गृहस्थ जीवन मे भी वे विशेष तपसाधना किया करते थे । मुनि-जीवन स्वीकार करने के बाद उन्होने कठोर योगसाधना एव ध्यान-साधना प्रारम्भ कर दी। कोन्तर प्रदेश की भयानक गुफाओं में भी वे एकाकी ध्यान-साधना किया करते थे। एक वार गिरिकन्दरा में फणिधारी नागराज ने ध्यानस्थ शान्तिसागर जी पर आक्रमण किया। पर वे अपनी साधना से तिलमान भी विचलित नहीं हुए। उनकी भावना मे अहिंसा और अभय की सरिता प्रवाहित होती रही। शान्तिसागर जी समता, क्षमा आदिगुणो से सम्पन्न सुयोग्य मुनि थे। चतुर्विधि
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy