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विद्या-विभाकर आचार्य विजयानन्द ३७५
मात्मविलास, वात्मवावनी, जैन मत वृक्ष आदि विभिन्न ग्रन्थो की उन्होने रचना की।
उन्होंने वी० नि० २४०७ (वि० १९३७) के वर्ष मे सहस्रो की संख्या में भजन व्यक्तियों को जैन बनाकर जैन धर्म को विशेष रूप से उजागर किया।
उनका सम्पूर्ण जीवन एक प्रकार मे जागरण का सन्देश था। इस भौतिक देह का विसर्जन भी उन्होंने जागम्यता पो माय किया।
वी०नि० २४२३ (वि० १९५३) ज्येष्ठ शुक्ला अप्टमी मध्या के समय प्रतिक्रमण किया। तदनन्तरवे परिपावं में बैठे हुए मुनि वृद से क्षमा याचना करते हुए वोले, "हम जा रहे हैं।" उनना पहफर को ही थे। अर्हन्-अहंन की ध्वनि के साथ उनका स्वर्गवान हो गया।