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प्रज्ञा-प्रदीप आचार्य जय ३७३
उनकी रचनाओ को पटने से लगता है कि वीर-वाणी के प्रति चे सर्वतोभावेन नमर्पित हो गए थे। किसी भी संद्धान्तिक विषय के विवेचन में वे आगम प्रमाणो का पर्याप्त उपयोग करते थे। उनकी हर रचना आगमिक आधार पर अवलम्बित है ।
इतिहास लेखन मे भी उनकी लेखनी का अनुपम अनुदान है । जैन इतिहाम के माघ तेरापथ का इतिहाम भी उनसे बहुत समृद्ध हुआ । 'भिक्षु जस रसायन' स्वामी जी के केवल गुणानुवाद हो नही अपितु विविध दृष्टान्तो के आधार पर तात्विक विवेचन भी है । इतिहास लिखने को यह सुन्दर परम्परा तेरापथ धर्म सघ मे जयाचार्य ने स्थापित की। उन्होने अनेक माधु साध्वियों के तथा श्रावकश्राविकाओं के जीवन चरित्र भी लिये हैं ।
जयाचार्य उच्च कोटि के भाष्यकार थे । आचार्य भिक्षु की प्रत्येक रचना का उन्होंने भाव्य कर दिया। आगम वाणी पर उनका भाध्यमय साहित्य अत्यन्त नर्मस्पर्धी हैं जो युग-युग तक जैनागम में प्रवेश पाने वाले विद्यार्थी के लिए आलोज-तम्भ का कार्य करता रहेगा। उनकी उन विरल विशेषताओं के कारण उन्हे जैन मुकुटमणि सम्बोधन दिया है।
जयाचार्य को स्वाध्याय-नाधना भी अतुल थी । जीवन के अन्तिम आठ वर्षो मै उन्होंने लगभग ८६,६७,४५० गाथाओ का स्वाध्याय किया ।
जैन दर्शन में मयमी जीवन का जितना महत्त्व है उसमे भी कही अधिक महत्त्व पण्डित मरण का है। जैन शासन की महान् प्रभावना करते हुए जयाचार्य ने जितना सुन्दर ढंग से सयमी जीवन जीया उगने कही अधिक उन्होंने अन्तिम क्षणो को मवारा |
प्रतिक्षण जागरुक थे । देहशक्ति क्षीण होने का आभास होते ही उन्होने अनशन की स्थिति को स्वीकारा । पूर्ण जागरुक अवम्या में तीन हिचकी के साथ आख खुलते ही उनका स्वर्गवास वो० नि० २४०८ ( वि० १९३८) भाद्रव कृष्णा द्वादशी को हो गया था ।