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आचार्यों के काल का सक्षिप्त सिंहावलोकन १६
आचार्य सिद्धसेन
जैन साहित्य मे आज न्याय शब्द जिस अर्थ मे प्रयुक्त है उसे प्रतिष्ठित करने का श्रेय आचार्य सिद्धसेन को है। न्यायावतार की रचना से उन्होने न्यायशास्त्र की नीव डाली। नयवाद का विशद विश्लेषण सर्वप्रथम आचार्य सिद्धसेन के ग्रन्थो मे प्राप्त होता है।
प्रमाण शास्त्र के विपय मे भी आचार्य सिद्धसेन ने गम्भीर चर्चा की है। अनुमान-प्रमाण की परिभाषा और स्वार्थ-परार्थ के रूप मे भेद-विभाजन का सर्वथा मौलिक चिन्तन सिद्धसेन का है। पक्ष, हेतु, दृष्टात, दूपण आदि विभिन्न पक्षो पर चिन्तन प्रस्तुत कर आचार्य सिद्धसेन ने स्वतन्त्र रूप से न्याय पद्धति की रचना की। अत आचार्य सिद्धसेन के साहित्य से न्याययुग के नवीन प्रभात का उदय हुआ था।
आचार्य समन्तभद्र
आचार्य समन्तभद्र का न्याययुग मे अनुपम योग है। आगम मे निहित अनेकान्त सामग्री को दर्शन की भूमिका पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय उन्हें है। आचार्य ममन्तभद्र महान् स्तुतिकार और अगाध आस्थाशील थे। उनके ग्रन्थ स्तुति-प्रधान हैं । उन्होने वीतराग प्रभु की स्तुति के साथ एकान्तवाद का निरसन, अनेकान्तवाद की स्थापना कर अनेकान्त दर्शन को व्यापक रूप प्रदान किया। आप्त मीमासा मे उन्होने आप्त पुरुपो की परीक्षा तर्क के निकप पर की है।
सुनय और दुर्नय की व्यवस्था, स्याद्वाद की परिभाषा का स्थिरीकरण और सप्तमगी की व्यवस्था आचार्य समन्तभद्र की देन है। आचार्य अकलक भट्ट
आचार्य अकलक भी न्याययुग के महान् उजागर थे। न्याय विनिश्चय, लघीयस्त्रय और प्रभाव सग्रह के द्वारा उन्होने न्याय की समुचित व्यवस्था की है। आज भी उनके साहित्य मे प्रतिष्ठित न्याय अकलक के नाम से प्रसिद्ध है । उत्तरवर्ती अनेक आचार्यों ने आचार्य अकलक की न्याय पद्धति का अनुसरण किया है। एव आचार्य माणिक्यनन्दी ने अपने ग्रन्यो मे अकलक न्याय को व्यापक विस्तार दिया है।
आचार्य अकलक की अण्टशती टीका जैन दर्शन के गूढतम अनेकान्त दर्शन की प्रकाशिका है।