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५५ गुण-निधान आचार्य गुणरत्न
तपागच्छ मे गुणरत्न नाम के कई आचार्य प्रसिद्धि प्राप्त हैं । प्रस्तुत आचार्य गुणरत्नकर्मग्रन्थो के रचयिता आचार्य देवसुन्दर के शिष्य थे । उनके आचार्य पदारोहण का काल वी० नि० १९१२ (वि० १४४२ ) है ।
दर्शनशास्त्र एव तर्कशास्त्र के वे विशिष्ट ज्ञाता थे । साहित्य-रचना की दृष्टि से उनकी प्रमुख सेवा अवचूरि साहित्य के रूप में है ।
भक्त-परिज्ञा, आतुर प्रत्याख्यान, चतुश्शरण, सस्तारक इन चार प्रकीर्ण ग्रन्थो पर आचार्य देवसुन्दर कृत कर्मस्तव, बन्ध स्वामित्व आदि पाच ग्रन्थो पर तथा चन्दपि महत्तर कृत सप्ततिका पर उन्होने अवचूरि साहित्य लिखा । कर्मग्रन्थो पर अवचूरि साहित्य की रचना वि० १४५६ मे की थी ।
संस्कृत भाषा में निबद्ध क्रियारत्न समुच्चय आचार्य गुणरत्न का अति उपयोगी ग्रन्थ है | आचार्य हेमचन्द्र के शब्दानुशासन के आधार पर धातुओ का सकलन कर आचार्य गुणरत्न ने इसका निर्माण वी० नि० १६३६ ( वि० स० १४६६) में किया था । सस्कृत भाषा के विद्यार्थी को इस ग्रन्थ मे सम्यक् सामग्री प्राप्त होती है । ग्रन्थाध्ययन से गुणरत्न का संस्कृत भाषा पर एकाधिपत्य भी प्रतीत होता है ।
'कल्पान्तरवाच्य' ग्रन्थ की रचना आचार्य गुणरत्न ने वी० नि० १६२७ ( वि० १४५७ ) मे की थी । इम ग्रन्थ मे पर्युषण पर्व की महत्ता का विवेचन है तथा तत्प्रसग की अनेक कथाए भी हैं ।
'अचलमत निराकरण' प्रभृति परमत खण्डनात्मक ग्रन्थ भी उन्होने लिखे है । 'क्रियारत्न समुच्चय की रचना अवचूरि साहित्य और कल्पान्तर वाच्य ग्रन्थ के वाद की है |
आचार्य गुणरत्न के जीवन मे नामानुरूप योग्यता का विकास था । वे ज्ञानादि गुणो के निधान ये । क्रियारत्न समुच्चय आदि ग्रन्थो मे प्राप्त मिति संवत् के आधार पर आचार्य गुणरत्न का समय वी० नि० १५७० से १९४५ ( वि० १४०० से १४७५ ) तक मान्य किया गया है ।