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४७. तप के मूर्तरूप आचार्य जगच्चन्द्र
त्याग और वैराग्य के मूर्तरूप आचार्य जगच्चन्द्र सूरि मणिरत्न सूरि के शिष्य थे। अपनी विशिष्ट साधना के द्वारा वे विश्व मे चन्द्र की तरह चमके । 'यथा नाम तथा गुण' इस लोकोक्ति को चरितार्थ कर उन्होने अपना नाम सार्थक किया।
एक वार चैत्रवाल गच्छ के देवभद्र गणी उनके सम्पर्क मे आए। सूरि जी की चरित्रनिष्ठा और शुद्ध समाचारी का प्रवल प्रभाव देवभद्र गणी पर हुमा । सघ मे छाये शिथिलाचार को कडी चुनौती देकर आचार्य कक्क सूरि की भाति जगच्चन्द्र सूरि क्रियोद्धार करने के लिए पहले से उत्सुक थे । देवभद्र गणी का योग उनके इस कार्य को सम्पादित करने हेतु बहुत सहायक सिद्ध हुआ । सूरि जी के अपने शिष्य देवेन्द्र मुनि भी उनके इस कार्य में निष्ठापूर्वक साथ रहे। इस श्रेष्ठ कार्य मे प्रवृत्त सूरि जी ने प्रवृत्ति की सफलता के लिए यावज्जीवन आयम्विल तप का अभिग्रह ग्रहण किया । उस समय उनके इस महत्त्वपूर्ण कार्य की भूरि-भूरि प्रशसा हुई और सूरि जी को आचार्य पद से सम्मानित किया गया । उनकी उत्कृट तप साधना ने साधारण जन से लेकर शासक वर्ग तक को अतिशय प्रभावित किया। मेवाड नरेश जैलसिंह जी ने महातप के आधार पर उन्हे वी०नि० १७५५ (वि० स० १२८५) मे 'तपा' नामक उपाधि प्रदान की। ___ कभी-कभी एक व्यक्ति की साधना समग्न समूह को अलकृत कर देती है। जगच्चद्र सूरि की तप साधना से ऐसा ही फलित हुआ। उनके नाम के साथ जुडी उपाधि गच्छ के साथ प्रयुक्त होने लगी। बडगच्छ का नाम 'तपागच्छ हो गया।
वडगच्छ का 'तपागच्छ' के रूप में नामकरण जगच्चन्द्र सूरि के गच्छ के साथ हुआ। उनके गुरुभाई शिष्यो ने इस नाम को स्वीकार नहीं किया। उनके गण की प्रसिद्धि अपने मूल नाम 'वडगच्छ' के रूप में ही रही।
इन दोनो गच्छो मे नामभेद अवश्य बना, पर सिद्धान्त, मान्यता, आचारसहिता एक थी। सिसोदिया राजवश ने इस 'तपागच्छ' को मान्य किया। वस्तुपाल और तेजपाल दोनो अमात्य इस युग की महान् हस्तिया थी। वस्तुपाल ने एक बार सूरि जी को गुजरात के लिए आमन्त्रित किया। महामात्य के गुरु बनकर वे वहा गए । गुजरात की जनता ने हदय विछाकर उनका स्वागत किया।